क्या है ज़िंदगी?: बुलबुला पानी का

ज़िंदगी का कोई ठिकाना नहीं, इस पल है और उस पल नहीं…रात बीती दिन रह गया…दिन गुज़रा और रात रह गयी…जीवन चंद किस्सों की कहानी है। किसी को नहीं पता कब किसका आख़िरी दिन या रात हो जाए। क्या मालूम किससे आपकी मुलाकात आख़िरी हो जाए… कुछ ठिकाना नहीं। पानी का बुलबुला कब फूट जाए…राम जाने।

आज ये लेख जीवन, उसके महत्व और मृत्यु पर है…और मेरे मन में चल रहे तमाम विचारों को एक जगह इकट्ठा करने की एक कोशिश भी।

जहां से मैं हूं वहां बीते दिनों एक बहुत ही कम उम्र के व्यक्ति का आकस्मिक निधन हो गया…एक और बेहद कम उम्र का शख्स बिना कुछ बोले, बिना कुछ बताए अपने परिवार को छोड़ कर चल बसा…कौन जाने कि जो चंद मिनटों पहले बिल्कुल स्वस्थ लग रहा हो वो अचानक से सबकुछ छोड़ कर मृत्यु को गले लगाकर आगे बढ़ जाएगा…और पीछे छोड़ गया…धन-दौलत, रूपया-पैसा, परिवार, यार-दोस्त… सिर्फ़ छोड़ गया अपनी यादें, बातें और कमाया हुआ अपना व्यवहार…जो उसकी सबसे बड़ी दौलत है।

मरना सबको है एक न एक दिन, बस सब उम्र के हिसाब से सबकुछ हो तो दुख नहीं देता जितना अचानक घटने वाले हादसों से होता है। वैसे एक बार फिर वो बात सही साबित हुई है…जन्म, मृत्यु और विवाह जब लिखे होते हैं तभी होते हैं इन्हें कोई नहीं टाल सकता…वो कहते हैं कि न तिल घटता है और न ही राई बढ़ती है…जब इनकी घड़ी आती है तो ये घट कर ही रहती हैं।

मैं विज्ञान पांडे जी को पर्सनली नहीं जानता था, लेकिन उनके आकस्मिक निधन ने मुझे काफी हैरान कर दिया। शायद इसीलिए 500 किलोमीटर दूर बैठ मैं अपने दिमाग में चल रही बातों को यहां साझा कर रहा हूं। हालांकि, मुझे विज्ञान पांडे जी के बारे में सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप के ज़रिए ही पता चला। फ़ेसबुक के मित्रों और जानने वालों ने उनकी तस्वीरों के ज़रिए बता दिया कि एक साथी और कम हो गया आज।

कई दफ़ा ऐसा होता है कि आप उस व्यक्ति को जानते तो नहीं है मगर उस व्यक्ति के जाने से उत्पन्न हुई पीड़ा को कोसों दूर रह कर भी महसूस करते हैं। विज्ञान पांडे की अंत्येष्टि में भारी संख्या में लोग उन्हें आख़िरी विदाई देने पहुंचे…लोगों ने इस सत्य को फिर दोहराया कि राम नाम सत्य है।

इस ख़बर के बाद मेरे एक मित्र से मैंने पूछा कि विज्ञान पांडे जी को क्या हुआ…मिश्रा जी ने जवाब दिया…साइलेंट अटैक था। सोचिए कोई भी कभी भी लास्ट टाइम बिना बोले – बताए…ऐसे भी चला जाता है।

किसी के जनाज़े में पहुंची भीड़ बता ही देती है कि जाने वाला शख्स क्या था और उसका औरा क्या था…विज्ञान भले ही चले गए हैं पर वो लोगों में, अपने चाहने वालों में और अपने परिवार में सदा के लिए जीवित रहेंगे। ईश्वर आपके परिवार को यह दुख सहन करने की शक्ति दे…अलविदा विज्ञान पांडे

बस अंत में यही कहूंगा कि एक न एक दिन अंत सबका होना है, कोई नहीं है जो कभी भी न मरे…बस इतना ही कहना है कि ख़ूब गुमां कीजिए अपनी दौलत-शौहरत, रुपए-पैसे पर….मगर किसी से गिला मत रखिए… अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मत समझिए और कोशिश करिए कि लड़ाई-झगड़ो के बाद भी वापसी कर दोबारा बातचीत शुरू करें…सब भूल कर गले लगें…पहल करें…क्योंकि सुझाव और संवाद हर समस्या का हल ढूंढ ही लेता है।

लड़ाई-झगड़े चलते रहते हैं…और सबकी होती है चाहे, राजा हो या साधारण व्यक्ति… सबके जीवन में ऐसा होता है…यहां हमें इस बात को भी समझना होगा कि राजा भी बुरे दौर व ख़राब किसम्मत की मार खा सकता है…उसे नहीं पता होता कि कब दुश्मन उसके परिवार पर काल बनके हमला कर देगा…दो लाइन्स पढ़ीं थीं कहीं…जो इसे बखूबी चरितार्थ करती हैं।

*समय की पराकाष्ठा जब अपने चरम पर होती है तो सुल्तान की सल्तनत से नवाब भी उठा लिए जाते हैं*

इसीलिए सरल बनिए, सौम्य बनिए और रिश्ते कमाइए… जैसे पांडे जी ने कमाए

विज्ञान पांडे जी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि
अलविदा साथी

पढ़ने के लिए शुक्रिया

उदित…
(Vinay Rawat)

शहर!!!

शहर में हालात काफ़ी ख़राब हैं, करीब 5 दशकों बाद लोगों ने ये मंज़र देखा है, शहर बाढ़ की चपेट में है। यमुना को हरदम उसके चाहने और न चाहने वालों ने महज़ बुराभला ही बोला है…कभी इसपर जमकर सियासत हुई तो कभी तीज़-त्यौहारों पर बड़े-बड़े वादे हुए। आज यमुना बह रही है जो बीते कई सालों से ठहरी हुई थी और बदनाम थी। हालांकि, पीछे से आते लगातार पानी के कारण जलस्तर बढ़ता जा रहा है मगर राहत बचाव अभियान के बीच जल्द इसके लेवल में कमी की बात कही जा रही है।


यमुना नदी में हथिनीकुंड बैराज से पानी छोड़े जाने के कारण पानी के स्तर में बढ़ोतरी दर्ज हो रही है और राजधानी के कई महत्वपूर्ण स्थान जलमग्न हैं। राजघाट, आईटीओ, कश्मीरी गेट व लाल किला सहित बहुत से इलाकों में बाढ़ जैसे हालात बन चुके हैं।


लोगों को राहत शिविरों में भेजा गया है, निचले इलाकों से काफी पहले ही वहां रहने वालों को खतरे का अंदाज़ा हो गया था और वक्त रहते उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है। पर क्या आपने सोचा है कि क्या गुज़रती होगी उस परिवार पर जो अपने गांव-शहर-देहात छोड़ उम्मीदों के शहर आता है, अपने साथ बहुत सी आशाएं व इच्छाएं लाता है…कड़ी मेहनत और जद्दोजहद के बाद एक घर बनाता है, उसमें भविष्य के सपने सजाता है और अचानक आए सैलाब के चलते उसे महज़ अपने पढ़ाई के दस्तावेज लेकर अपना आशियाना छोड़ना ही पड़ जाता है।

सोचिए आप एक मेहमान के घर ठहरने में रात काटने में कितना झिझकते हैं, कह देते हैं फिर कभी रुकेंगे रातभर के लिए… इसी बीच उस परिवार की सोचिए जो अपने घर-मकान को डूबता छोड़ वहां से जाने के लिए ही मजबूर है। और राहत शिविरों में रहने के लिए मजबूर है…बिल्कुल अनजान लोगों के साथ।

सरकारें हर प्रकार के वादे और दावे करती हैं हमेशा की तरह… इस बार भी दिल्ली सरकार ने सभी दावे किए…कहा हालात काबू में हैं राजधानी में बाढ़ नहीं आ सकती है। पर हुआ क्या…हुआ वही जिसकी चेतावनी थी। हालांकि, सरकार अपनी ओर से हर संभव प्रयास कर रही है इसमें कोई दोराय नहीं है। आईटीओ पर मौजूद नाले का रेगुलेटर ख़राब होने के कारण 32 में से 5 गेट नहीं खुल पाए हैं और जलभराव की स्थिति बरकरार है।

अभी तो हालात ये हैं कि शहर जलमग्न है कल जब पानी कम होगा…तो स्थिति और चुनौतीपूर्ण होने वाली है…बीमारियां पैर पसारना शुरू करेंगी…लोगों को इसके लिए भी तैयार रहना होगा…चूंकि, सरकारें दावे करने में माहिर है। भाईसाब तो पहले ही कह दिए कि अपना-अपना देख लो।

आज सुबह पार्क में बुजुर्गों में चर्चा हो रही थी कि लाल किले के पीछे पानी भर गया है…एक बुज़ुर्ग बोले इसमें क्या नया है पहले भी तो यही था…यमुना नदी किले के पीछे से बहती थी बस उसके आस पास इतना अतिक्रमण हुआ कि उसका बहाव कम होता गया और लोग, इमारतें, व्यवसाय फैलते गए।

आज दिल्ली की इस स्थिति के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराएं और किसे नहीं…पता नहीं… दुष्यंत चौटाला पड़ोसी राज्य के मुख्यमंत्री को इसका ज़िम्मेदार बताते हैं तो केजरीवाल साहब इसका ठीकरा हरियाणा सरकार और उप-राज्यपाल फोड़ते हैं।
ख़ैर सबकुछ जल्द ठीक को इसी की उम्मीद है, मगर इस बार ये ज़रूर समझ आगया कि किस भी आपदा को न्यौता नहीं देना होता है…वो कभी भी किसी भी रूप में तबाही मचा सकती है। इसलिए प्रकृति से खिलवाड़ न करें जो उसका है उसका ही रहने दें…ताकि आने वाली पीढ़ी का भविष्य सुंदर व सुरक्षित रहे।

उदित…
(Vinay Rawat)

      

जो लौटकर घर न आए

कई दिनों से पश्चिमी राजस्थान में ज़ोरदार बरसात का दौर जारी था, जनजीवन अस्त व्यस्त था…लगातार हो रही बारिश के कारण सड़कों पर पानी भरा हुआ था… जोधपुर, बाड़मेर व आस पास के इलाकों से भारी बारिश की तस्वीरों से ट्विटर भरा पड़ा था…हालांकि, 28 जुलाई 2022 दिन गुरुवार को बारिश कम हुई… हालात सामान्य होते दिखे….मगर रात होते होते एक दुःखद खबर आई…भारतीय वायुसेना का लड़ाकू विमान मिग-21 बायसन बाड़मेर के भीमड़ा गांव के पास दुर्घटना का शिकार हो गया… हादसे में सेना ने अपने दो जांबाज़ पायलट खो दिये…स्क्वाडन लीडर मोहित राणा और फ़्लाइट लेफ्टिनेंट अदिवत्य बल ने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया…जानकारी के अनुसार,  इस विमान ने वायुसेना के पश्चिमी कमांड के उत्तरलाई एयरबेस से कुछ ही मिनटों पहले ही उड़ान भरी थी…कई सौ किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ़्तार से हवा में उड़ रहे इस में अचानक आग लग जाती है…और देखते ही देखते आग बढ़ने लगती है… टर्बोजेट सिंगल इंजन मिग-21 को उड़ाने वाले दोनों पायलट फाइटर प्लेन को रिहायशी इलाकों से दूर ले जाते हैं और रेत के टीलों के पास यह क्रैश हो जाता है…यह सब इतनी तेज़ी से होता है कि दोनों पायलट खुद को विमान से निकाल पाने में असफ़ल रहते हैं…घटना की सूचना पुलिस-प्रशासन को मिलते ही उनकी टीमें मौके पर पहुंच जाती हैं…राजस्थान से लेकर दिल्ली तक फ़ोनों की घंटियां बजने लगती हैं… वायुसेना के वरिष्ठ अधिकारियों को हादसे सूचना मिलती है…लोगों की शोक संवेदना व्यक्त करने का सिलसिला शुरू हो जाता है…देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह वायुसेना प्रमुख वीके सक्सेना से फ़ोन पर बात करते हैं…वर्तमान स्थिति के बारे में पूछा जाता है… और कुछ ही देर बाद हादसे की पुष्टि करते हुए वायुसेना जांच के आदेश दे देती है…2018 में वायुसेना में बतौर पायलट कमिशन्सड हुए 26-वर्षीय अदिवत्य बल का बचपन से लड़ाकू विमान उड़ाने का सपना था… जिसे उन्होंने कड़ी मेहनत व लग्न से पूरा कर दिखाया… बल जम्मू के रहने वाले थे और उन्होंने सैनिक स्कूल से अपनी पढ़ाई की थी… वहीं, हादसे के एक हफ्ते पिछले स्क्वाडन लीडर मोहित राणा ने अपना जन्मदिन अपने परिवार व दोस्तों के साथ मनाया था…और कुछ ही दिन पहले वो छुट्टी काट कर वापस लौटे थे…राणा पिछले कई सालों से इस विमान को उड़ा रहे थे और वो  वेल क्वालिफाइड पायलट थे…वहीं, दूसरी तरफ़ फ़्लाइट लेफ्टिनेंट अदिवत्य बल अपने सपनों को ऊंची उड़ान देने के लिए निकले थे… मगर क्या दोनों सोचा होगा कि वो शायद कभी वापस लौट कर नहीं आ पाएंगे…रेगुलर शॉर्टी की तरह गुरुवार को भी दोनों ट्रेनर एयरक्राफ्ट लेकर निकले थे और एक सफ़ल शॉर्टी के बाद वापस लौटने वाले थे… मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था…इस शहादत के बाद दोनों पायलटों के परिजनों का रो रो कर बुरा हाल है…दोस्त, सहकर्मी, अधिकारी, जवान सब स्तब्ध हैं…मायूस हैं चूंकि उन्होंने अपने क़रीबियों को खोया है…और इसका दुःख महज़ यही लोग जानते हैं…क्योंकि इनके अलावा और किसी को शायद ही फ़र्क पड़ता हो…हालांकि, यह कोई पहला हादसा नहीं था जिसमें हमें वो क्षति हुई जिसकी चाह कर भी भरपायी नहीं की जा सकती…लेकिन इस बीच एक सबसे बड़ा सवाल है कि 1960 के दशक में खरीदे गए मिग21 को हमारी वायुसेना अपने बेड़े से क्यों नहीं हटाती?…जिस जहाज़ को उड़ता ताबूत और विडो मेकर जैसे शब्दों से जाना जा रहा है उसे हम रिटायर क्यों नहीं कर देते… रिपोर्ट्स के मुताबिक, अबतक यह लड़ाकू विमान क़रीब 200 पायलटों की जान ले चुका है…जनता, नेता, पक्ष-विपक्ष हर कोई इसके खिलाफ हैं मगर इसे हटाने को लेकर अभी भी हमें 2025 तक का इंतज़ार करना पड़ेगा…देश में हज़ारों करोड़ के घोटाले हो जाते हैं…धड़ल्ले से लोग हमारा रूपया लेकर विदेश भाग जाते हैं और हम महज़ चंद पार्टियों के पक्षधर चैनलों और अखबारों पर सरकार की तारीफ़े पढ़ते रह जाते हैं…मगर किसी की जान की कीमत न समझते हुए…अन्य विमानों को लाने व बनाने पर ज़ोर नहीं दिया जाता है… बताते चलें कि भारत एक ऐसा देश है जिसने मिग -21 विमान को अबतक सेवानिवृत्त नहीं किया है जबकि इसे बनाने वाले रूस ने ही इसे 1985 में अपने बेड़े से हटा दिया… वहीं, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों ने भी इसे रिटायर कर दिया…1960 के दशक में भारतीय वायु सेना में शामिल हुए मिग विमानों ने 1990 के दशक के मध्य में अपना रिटायरमेंट पीरियड पूरा कर लिया है…इसके बावजूद भारत में इसे अपग्रेड किया जा रहा है….वहीं, हिंदुस्तान आज भी इसे अपनी रीढ़ की हड्डी बताते हुए उड़ाए जा रहा है…और अपने पायलटों की जान जोखिम में डाल कर…2025 में अभी पूरे 3 साल बाकी हैं…क्या जब तक हम और भी सैन्य पायलटों की जान को खतरे में डालते रहेंगे…और अगर हां तो ये हमारी बहुत बड़ी गलती होगी…क्योंकि इन हादसों के बाद उन परिवारों से कोई पूछे कि उनके दिल पर क्या बीत रही है…जिन्होंने अपने घर का अहम सदस्य को खोया दिया, उन दोस्तों व साथ करने वाले सहकर्मियों से कोई पूछे जो दिन रात साथ में उठते बैठते थे…खाते थे पीते थे…कि कैसे उनके दिमाग में यादों की वो सभी तस्वीरें अब शायद ही कभी धुंधली हो पाएं…इन हादसों को रोकने के लिए सरकार को तत्काल प्रभाव से मिग-21 लड़ाकू विमान को रिटायर कर देना चाहिए और म्यूजियम में रखवा देना चाहिए वरना हम आने वाले दिनों में ऐसे कई और हादसों पर सिर्फ़ अफ़सोस जता पाएंगे और कुछ नहीं।। (विनय रावत)

दो दोस्त…

सुबह सवेरे जब 6बजे घड़ी का अलार्म बजता है तब लगता है उठाकर फेंक दूं इसे और बंद कर दूं हमेशा के लिए…लेकिन कभी ऐसा कर नहीं पाता हूं और मज़बूरन ही सही 6-6.30 की नींद लेकर छोड़ देता हूं बिस्तर आजकल…टहलने के बहाने छोटे से शहर के कोने में तरीक़े से अंग्रेज़ो के ज़माने में बने कैंट के बाहर-बाहर की सड़कों पर निकल जाता हूं…अकेले घूमना फिरना बड़ा अजीब सा लगता है…लगता है जैसे मन में पिछले दिनों का कुछ बोझ लिए अंदर ही अंदर कुछ सोचते हुए पेड़ो को, पंछियों को, दूर तक फैले आसमान को देखना सिर्फ़ मजबूरी हो…बड़े शहरों में ये मज़बूरी और मज़बूत व बड़ी हो जाती है…लेकिन तभी आपके अकेलेपन, अधूरेपन और ख़ामोशी से बीत रही ज़िंदगी में कुछ लोग आते हैं जो इसे ख़त्म कर देते हैं और भर देते हैं रंग इन बेजान और अधूरे चित्रों में…आप सोच रहे होंगे कि कौन हैं वो लोग…आज मेरे दो दोस्त बने हैं वो एक दूसरे के बेस्ट फ्रेंड हैं और अब मैं उनका दोस्त हूं…दोनों बहुत ही सरल, बिना किसी छल या कपट का कोई मुखौटा लगाए बिल्कुल बहते नीर से हैं जैसे बहते पानी में सबकुछ साफ़ देखा जा सकता है ठीक वैसे ही उनके अंदर सबकुछ साफ नज़र आता है…मेरे ये दो मित्र  शहर के नामी गिरामी स्कूल में सेकंड क्लास में पढ़ते हैं…’यश’ पलासिया(बंगाल में कहीं) का रहने वाला है और उसके पिता फौज़ में हैं…वो अपनी मम्मी और भाई के साथ यहां रहता है…यश को लगता है कि बहुत जल्द ये पृथ्वी खत्म हो जाएगी क्योंकि उसने यूट्यूब पर एक वीडियो देखा था जिसमें ऐसा बताया गया है…इसलिए वो कहता है हमें मौज-मस्ती करते रहना चाहिए…उसने बताया कि वो दीवाली पर अपने गांव जाएगा लेकिन उसे गांव जाना पसंद नहीं है क्योंकि वहां के बच्चे उसे चिढ़ाते हैं और उसकी शुद्ध बुन्देलखण्डी व हिंदी भाषा का मज़ाक उड़ाते हैं…यश नाराज़ होते हुए अपने दोस्त शिवमं से कहता है कि वो कभी अपने बचपन की फ़ोटो उसे नहीं दिखाएगा…मैंने पूंछा ऐसा क्यों…तो शिवमं ने खिल-खिलाते हुए कहा कि उसमें ये नंगा बैठा है न इसलिए…चलिए शिवमं के बारे में भी आपको बताते चलें शिवमं लखनऊ का रहने वाला है और उसके पापा नल फिटिंग का काम करते हैं…शिवमं बहुत चंचल मन वाला है उसके मस्तिष्क में हर चीज़ को लेकर सवाल उड़ते रहते हैं…ये ऐसा हुआ तो ऐसा कैसे…ऐसा क्यों हुआ…शिवमं अपने आप को बहुत ही ज़िमेदार बेटा,भाई और दोस्त मानता है…उसने अपनी दीदी के जन्मदिन पर उनके लिए गाउन आर्डर किया है सरप्रिज़ देने के लिए… लेकिन यश का मनना है कि शिवमं एक चीज़ में सबसे ज्यादा लापरवाह है वो है खाना…उसे खाना बिल्कुल पसंद नहीं है वो सिर्फ़ चटोनिया मतलब नमकीन, बिस्किट और बर्गर पिज़ा खाता है…इसीलिए शायद वो अपने दोस्त से काफ़ी कमज़ोर भी है…पहले दिन जब मेरी इनसे मुलाकात हुई तो ये दोनों कुत्तों द्वारा ठररते नीलगाय से बचते बचाते भाग रहे थे…आज उन्होंने बताया कि नीलगाय बिल्कुल गधे जैसी लगती है लेकिन ऊंची छलांगें लगाने में माहिर होती है…ये दोनों पक्के दोस्त एक दूसरे की पोल खोलने में भी माहिर हैं…यश बताता है कि शिवमं फ्री फायर नामक ऑनलाइन गेम खेलता है और मैंने इसलिए खेलना बंद कर दिया…क्योंकि एक लड़के ने आने मां के खाते से 40 हज़ार रुपये उड़ा दिए थे और मर गया था…शिवमं यश की बात को खारिज करते हुए कहता है 40 हज़ार उड़ाए नहीं थे…टॉप अप रिचार्ज कर लिया था और हार गया था…तभी शिवमं के मन में एक सवाल खूद पड़ा अंकल…भैया… सॉरी जो भी है…भैया मोज़ चलाते हो आप…मैंने कहा नहीं… आप चलाते हो, हां कभी कभी…शिवमं बड़े होकर बैंक मैनेजर बनना चाहता है और यश अपने पापा की तरह फौज़ में बड़ा अफ़सर बनना चाहता है…आज की इस मुलाकात में मैंने ख़ुद को बहुत पीछे पाया कई बातें नहीं लिखी जो आपको साफ़ समझ आ रही होंगी जैसे कि हम सेकंड क्लास में कैसे थे क्या हमें इतना सब पता था, क्या हमें कभी हमने सोचा कि कौन कैसे क्या और क्यों करता है…खैर… इनके बाल मन में न जाने कितने ही और विचार तैर रहे थे… इतनी जिज्ञासा वाकई बचपन में ही रहती है फिर तो लाज, शर्म, डर सब मन में घर कर लेता है…इनकी बातों में पता ही नहीं चला कि कब 8 बज गए…घर लौटते हुए दोंनो ने अपने घर दिखाए और इशारे से मेरा घर पहचानते हुए…टाटा बोलते हुए भैया कल मिलेंगे कहते हुए अगले पड़ाव की ओर चले गए…दो सच्चे दोस्त

उदित…

मिडिल क्लास वाले सपने….

क्या हक़ नहीं एक उस लड़के को सपने देखने का भी, उन्हें जीने का, उन्हें चुनने का, क्या वो एक साधारण से परिवार से आने वाला लड़का नहीं हाँसिल कर सकता वो सब जो सिर्फ़ उसे किसी स्वप्न से कम नहीं लगता…..
ख़ैर ख़ासा मुश्किल होता है सपने भी देख पाना एक साधारण से परिवार के लड़के के लिए भी, क्योंकि होती हैं उस पर लाख ज़िमेदारियाँ घरों की, बड़ों की, क्या वो नहीं निकल सकता गाँव से शहर तक या वो नहीं जी सकता एक ऐसी ज़िंदगी जिसके बारे में उसने सिर्फ़ सुना हो दूसरों से….. अभी कुछ वक़्त बिताया है मैंने बहुत क़रीब रहकर सभी के, ऊँचे पहाड़ो पर चढ़कर दूर तक देखे हैं फैले हुए गाँवो को, छाई हुई धुंध को, शहरों की तरफ़ जाती सड़कों को, सुनते हुए अपने साथियों के सपनों को, उनकी उम्मीदों को, उनके अरमानों को…वो सीमित नहीं है एक नौकरी चाकरी के वो जीना चाहते हैं ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर अपने तरीक़ों से…बैठ कर सबसे ऊँची पहाड़ी पर की हैं वो तमाम चर्चाएँ जो शायद कभी न हो पातीं बैठकर एकांत में भी…सोचो कोई बेहतर लेखक है उनमें, कोई बेहतर खानसामा, तो किसी में है हुन्नर दूसरों को अपना बनाने का, कोई है जिसमें हैं बहुत से हुन्नर जिसे वो खुद नहीं पहचानता लेकिन आजमाता है ख़ुद को हर क्षेत्र में…..इस बार स्मृतियों में गाँव के उस  पहाड़ ने एक अलग छाप छोड़ी है जो शायद ताज़ा बनी रहे जीवन के आखिरी क्षणों तक भी…दस बारह किलोमीटर के फेर में बहुत कुछ लाते थे हम लोग…जब भी चढ़ते थोड़ा डर ले जाते और जब चढ़ जाते तो देखते थे दूर दूर तक फैली पहाड़ियों को, जंगलो को, तालाबों को, और बैठ चट्टानों पर कर रहे हैं संवाद जीवन पर, स्वप्नों पर, खोल रहे हैं न जाने कितने राज़ ज़िंदगी के, हो रहा है ज़िक्र यदि ये होता तो ये हो जाता है, ऐसा किये होते तो ऐसे होते…..खिंचवा रहे हैं कई तस्वीरें बदल बदल कर कपड़ें अपने….मोबाइल की इस दुनिया में यही एक फायदा है कि क़ैद कर लेते हैं हम अपने उन हसीं लम्हों को जिन्हे शायद फिर जीया न जा सके।। कुछ ऐसे ही हम साधारण परिवार के लड़के देखते हैं कई सपनों को एक दूसरे के साथ मिलकर और करते हैं कोशिश इन्हें पूरा करने की, हो जाता है कभी कभार आसान थोड़ा जब मिल जाता है कोई अपना रास्ता दिखाने के लिए, बताने के लिए की क्या इस सपने के लिये ये रस्ता सही है क्या सही समय है उड़ान भरने का, उड़ने का, निपटने का उस आँधी से जो लगातार आती रहती है हमारे जीवन में बिन बताए ही…हम ऐसे ही करते हैं अपनी कोशिश-ए-तमाम, रखते हैं उम्मीद पूरा करने की उस सपने को जिसे सिर्फ़ अकेले हमने देखा है और साझा किया है अपने करीबी दोस्तों के साथ……

                             उदित…

एक साँवली सी लड़की….

एक साँवली सी लड़की,जो परिपूर्ण है खुद में,
जो कम नहीं है किसी से, उसे गुमां भी है अपने उस रंग पे, जो बनाता है उसे सबसे ख़ास सबसे अलग, और इसीलिए हर कोई जचता भी नहीं उस सा हर रंग के साथ…पर हाँ बड़ा इतराती है, नज़रें भी ख़ूब लड़ाती है, इक साँवली सी लड़की दिल को बहुत भाती है…श्रृंगार मानो बिल्कुल सादा, कजरा, बिंदिया और लाली, सबको मजबूर कर देती है ठकर कर एक नज़र उसेदेखने के लिए…
उससे रहती है ललक मिलने की हर शाम मुझे,
हाँ वही है ये जो करती है राज लाखों दिलों पर आज भी, वो मुस्कुराती है खुलकर अपने अरमानों के साथ, अपने सपनों के साथ, उसमें दिखते हैं मोहब्बत के कई रंग भीतर तक,
नहीं है उसे कोई फ़िक्र कल की और न ही किसी और की भी – कौन क्या कहता है क्या सोचता है उसके रंग रोगन, कद काठी, स्वरूप के बारे में, वो तो लुटाए जा रही है मोहब्बत चारों तरफ़…किसी की प्रेमिका बनकर, किसी की दोस्त, किसी की संगिनी…..सुंदरता देखो उसकी पहने हुए है सीधे हाथ की आख़िरी उंगली में वही नंग जिसे पन्ना कहते हैं, रंग इबादत का, इश्क़ का, ख़ुलूस का…
मांथे पर नहीं है शिकन कोई जिसके, दोनों आंखो में एक अलग सा तेज़ है, हल्की सी टेढ़ी नाक में पहनी नथ से बढ़ती खूबसूरती है… छुपा रखी है मुस्कान दोनों होंठो के बीच में इसी साँवली लड़की ने और घेर रखा है घनी जुल्फ़ों ने लंबी सी गर्दन को तीन तरफ से किसी जंगल सा….मगर वो बात अलग है दबा रखें है कई ज़ख्म इसने भी अपनी इस हँसी के पीछे, सहे हैं इसने भी कई ताने अपने रंग को लेकर, मिला है इंकार इसे कईयों से उम्रभर…भले रंग की वजहों से बस….बस पी जाती है बहुत कुछ कड़वाहट भरा जो इसकी ज़िंदगी को और बुरा बना देता अगर नहीं बढ़ती आगे सबकुछ भूल कर….वैसे कई दर्द हैं दिलों के कोनो में जो कुछ वक्त तक ताज़ा रहे अब बस पड़े हैं किसी कोनों में…..और अब खुलकर मुस्कराती है ये साँवली सी लड़की और दूसरों को भी रखती है ख़ुश अपने अंदाज से, अपने मिज़ाज से…गैरों के लिए होगा भेद कोई रंग का, अपनों में सबसे प्यारी है, ये साँवली सी लड़की….ख़ैर एक साँवली सी लड़की जो दिल को खूब भाती है, लो देखो वो खुद पर कितना इतराती है, नज़रें मिलती है नज़रें चुराती है बस एक साँवली सी लड़की दिल में उतर सी जाती है…

                                    उदित…

किस्से हैं – सुनो तो सही…

सुबह के पौने पाँच बज रहे हैं थोड़ा अंधेरा है और धीरे धीरे आकाश में नीलापन छा रहा है, पँछी ख़ूब तेज़ी से चहक रहे हैं, बिजली आधी रात से नहीं है और कान पर मच्छर भिन भिना रहे हैं वो भी बहुत ही जोर से…और कमबख्तों ने दस बीस बार काटने का मौका भी नहीं छोड़ा। बीस पचीस मिनट की कुलबुलाहट के बाद अलार्म फिर से बजने लगा है, बन्द करके सोने की कोशिश की ही है कि तभी एक मित्र का टेलीफोन आता है, भैया उठ गए न ? हाँ…चलो चलते हैं…. सुबह की भारी सी आवाज़ में सवाल होता है और उसी भारीपन में जवाब दे दिया जाता है….तैयार होते होते साढ़े पांच बज गए हैं, दरवाजे के आगे बड़ी अम्मा उरैन डालते हुए कहती हैं उठ गए ?
हाँ बस थोड़ी देर पहले…. तभी सुबह का सबसे अच्छा सगुन आँखों के आगे होता है – बछिया अपनी माँ का दूध पूरे चाव से पी रही है, वाक़ई इसे सौभाग्य ही कहते हैं। ये सौभाग्य ही है कि सुबह सूरज सड़क पर निकलता नज़र आता है उसकी लालिमा से आधी थकान तुरन्त मिट जाती है और इसी के साथ शुरू होता है हमारा एक और नया दिन….घर के बाहर ही गौरैया चौखट के बीचों बीच रखे घोंसले में अपने बच्चों को सुबह से ही कुछ खिलाने में लगी है ये दृश्य दिल में रम जाते हैं और ताज़ा रहते हैं कई सालों तक….सुबह से ही हमारा दिन शुरू हो जाता है जिसमें व्यायाम है, कसरत है, प्राकृतिक सौंदर्य है, शहरों में न सुनाई देने वाली पशु पक्षियों की ध्वनियां हैं, हरापन है, अपनी माटी है, अपना गाँव है, न लगने वाली धूप है, सुहानी शाम है, और कुछ किस्से हैं शहर की तिजोरियों के जिन्हें शाम होते ही निकालने लगते हैं एक एक करके हररोज़ अपने करीबियों के साथ…..
और फिर क्या फिर ढल जाता है एक और दिन इसी तरह…
                                उदित…
                   Vinay Rawat(उदित…)

युवाओं के कल को तय करती…चाणक्य नीति

वैसे तो अपने चाणक्य नीति के बारे में काफ़ी कुछ सुना होगा, बल्कि हो भी सकता है की इन नीतियों को अपने जीवन में अमल में लाया हो। लेकिन क्या आप इन नीतियों से सहमत हैं, क्या आप जानते हैं इन नीतियों के जनक स्वयं चाणक्य ही हैं या फिर सिर्फ़ उनके द्वारा इनका प्रयोग किया गया। और क्या आज यह नीतियां युवाओं को सही मार्गदर्शन दे सकती हैं। ग़ौरतलब है कि चाणक्य प्रखंड विद्वानों में से एक थे परन्तु चंद्रगुप्त मौर्य भी असाधारण और अद्भुत शिष्य था। लेकिन ऐसे अद्भुत शिष्य को खोजने के लिए भी पारखी नज़र की आवश्कता थी, जो नज़र थी आचार्य चाणक्य की।। चाणक्य का जन्म एक ग़रीब परिवार में हुआ था, चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्रिमंडल में महामंत्री रहे विद्वान चाणक्य अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिक विषयों में गहरी पकड़ थी। चाणक्य की नीतियां जितनी पहले समय में कारगर थीं उतनी ही आज हैं जिन पर अमल करके व्यक्ति खुशहाल जीवन जी सकता है।लेकिन यह नीतियॉं चाणक्य ने भी अपने जीवन के अनुभवों से ही सीखीं थीं। एक बार का वाक्या है, चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य की सेना के साथ मगध की राजधानी पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर दिया, और धनानंद की सेना और किलेबन्दी का ठीक से आंकलन नहीं कर पाए और बुरी तरह हार का सामना कर जान बचा कर भाग खड़े हुए। चंद्रगुप्त और चाणक्य ने बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाई और चाणक्य एक घर में जा कर छुप गए। पास में चौके में एक दादी अपने पोते को खाना खिला रही थी। दादी ने उस दिन खिचड़ी बनाई थी, जो कि बहुत गर्म थी। दादी ने खिचड़ी के बीच मे छेद कर गर्मा गर्म घी भी डाल दिया और पानी भरने चली गयी। थोड़ी देर के बाद बच्चा जोर से चिल्ला रहा था और कह रहा था – जल गया, जल गया। दादी ने आकर देखा तो पोते ने गर्म खिचड़ी में उंगलियों को डाल दिया था। दादी ने कहा, तू चाणक्य की तरह मूर्ख है, गरम खिचड़ी का स्वाद लेना हो तो उसे कोनों से खाया जाता है और तूने मूर्खो की तरह बीच मे ही डाल दिया और अब रो रहा है। चाणक्य तुरंत बाहर निकल आए और बुढ़िया के पाँव छू कर बोले- आप सही कहती है कि मैं मूर्ख ही था तभी राज्य की राजधानी पर आक्रमण कर दिया और आज हम सबके जान के लाले पड़ रहे हैं। इस अनुभव के बाद चाणक्य ने मगध को चारों तरफ से धीरे धीरे कमज़ोर करना शुरू किया और एक दिन चंद्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाने में सफ़ल हुए। कुछ ऐसे ही अनुभवों के कारण प्रखंड विद्वान चाणक्य ने इन नीतियों को अपनाना प्रारम्भ किया।
आज अगर हम इन नीतियों को अपने जीवन में लाते हैं तो शायद सफलता जल्दी मिले और अनुभव होने के कारण हम भी बहुत कुछ हाँसिल कर पायें। आज हमारे देश में सबसे अधिक आबादी युवाओं की है, और इन्हीं युवाओं के हाँथो में देश का भविष्य टिका हुआ है। तो आइये कुछ ऐसी ही नीतियों और अनुभवों को आपके साथ साझा करते हैं जो युवाओं की सोच को और उनके परिणामों को बदलने में कारगर साबित हो सकती हैं। 
वर्तमान समय की स्थिति के अनुसार हम लगातार परिश्रम करने में कतराते हैं और लगातार कर रहे मेहनत का परिणाम ना मिलने पर अपनी किस्मत को दोष देने लगते हैं और निराश होकर बैठ जाते हैं, लेकिन हमें ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए बल्कि इस परिस्थिति में और कड़ी मेहनत करनी चाहिए क्योंकि चाणक्य की एक नीति कहती है- परिश्रम वह चाबी है, जो किस्मत का दरवाज़ा भी खोल देती है। 
कहते हैं हम अक्सर अपनी क़िस्मत को कोसते हैं, और कहते हैं कि हमारी किस्मत में यह चीज़ नहीं है, लेकिन यह मूर्खता है क्योंकि चाणक्य ने चंद्रगुप्त के एक सवाल का उत्तर अपनी नीतियों के ज़रिए भली भांति जवाब दिया है। चन्द्रगुप्त कहते हैं – क़िस्मत पहले ही लिखी जा चुकी है, तो कोशिश करने से क्या मिलेगा, चाणक्य ने इसका उत्तर अपने ही अंदाज़ में दिया और कहा – क्या पता किस्मत में लिखा हो की कोशिश करने से ही मिलेगा।।इसलिए हमेशा याद रखें किस्मत के भरोसे ना बैठें बल्कि कर्मों में यकीं रखें।।
कहते हैं मन के हारे हार है और मन की जीते जीत, देश के युवा साथियों को इस बात को समझना चाहिए क्योंकि हम अक़्सर हैरान हो कर थक कर बैठ जाते हैं लेकिन हम आत्मचिंतन नहीं करते हैं जो कि बेहद जरूरी है। चाणक्य की एक नीति विशेष तौर पर युवा पीढ़ी के लिए ही है, जो बहुत जल्दी ही हार मान जाते हैं। चाणक्य ने कहा है- जो व्यक्ति शक्ति न होते हुए मन से हार नहीं मानता, उसको दुनिया की कोई ताक़त नहीं हरा सकती है। ख़ुद पर यांकी रखिये और डट कर मेहनत करिए आप जीतेंगे आज नहीं तो कल ज़रूर जीतेंगे।।
अक्सर ज़िन्दगी में हम कई लोगों को अपना मित्र मानते हैं और कुछ लोग हमारे शत्रु भी बन जाते हैं, जिसका परिणाम भावनात्मक सुख और दुःख भी होता है। कई दफ़ा यही लोग बदल भी जाते हैं जिस कारण हमारे जीवन पर खासा असर पड़ता है। लेकिन आचार्य चाणक्य मानते हैं – संसार में न कोई आपका मित्र है न शत्रु, बस तुम्हारा अपना विचार ही सर्वश्रेष्ठ है, और वही इसके लिए उत्तरदायी है। यानी आप अपने विचारों को अच्छा बनाइये और यही सर्वोच्च हैं।
आज की भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में अमुमन देखा गया है, हम अपने बारे में ना सोच पाते हैं और ना ही कुछ कर पाते हैं। छोटी छोटी बातों पर हमें गुस्सा आ जाता है। जो कि हमारी सेहत के साथ साथ जीवन के लिए भी ख़तरनाक़ है। इसलिए चाणक्य कहते हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी ताकत पुरूष का विवेक है और महिला की सुंदरता, इसलिए हमेशा हमें अपने विवेक और बुद्धि से काम लेना चाहिए। क्योंकि कई बार विवेक से किया हुआ काम बन जाता है और गुस्से से बिगड़ जाता है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफ़र तय करने वाला यह मानव जीवन बरहमेश सफ़ल और बेहतर अनुभव के साथ बीतने का प्रयास करता है, लेकिन हम किसी न किसी कमी को लेकर हमेशा परेशान रहते हैं। लेकिन चाणक्य नीति यही कहती है- व्यक्ति अपने कर्मों से महान होता है ना की अपने जन्म, इसलिए हमें अपने कर्मों से अपनी पहचान बनानी चाहिए ना कि अपने जन्म से की आप कहाँ और किस परिस्थितियों में पैदा हुए।
आज के युवाओं में धैर्य की थोड़ी कमी है, लेकिन मेहनत का कोई अभाव नहीं है, अगर सही दिशा दिखाई जाय तो किसी भी देश का कोई भी वर्ग वो सभी लक्ष्य प्राप्त कर सकता है जो वो चाहता है, परन्तु जीवन में किसी भी कार्य को शुरु करने से पहले हमें ख़ुद से कुछ सवाल करने बेहद जरूरी हैं ऐसा बेहतरीन ज्ञाता और गुरुओं के गुरु चाणक्य का मानना है, वे कहते हैं कोई भी काम शुरू करने से पहले ख़ुद से पूँछये – मैं ऐसा क्यों करने जा रहा हूँ? इसका क्या परिणाम होगा? क्या मैं सफ़ल हो पाऊंगा? यह तीन सवाल इसलिए आवश्यक हैं क्योंकि कई बार हम जल्दबाजी में कुछ फैसले ऐसे ले लेते हैं जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते और वो हमारी क्षमता से बाहर होता है,इसलिए ज़रूरत है कि हम ख़ुद से ये तीन सवाल करें और फिर आगे बढ़े।

और आख़िर में चाणक्य की वो नीति जिसे वो स्वयं ख़ुद पर भी अजमाते थे और बहुत कुछ सीखते थे, प्रखंड विद्वानों में से एक, ज्ञान से परिपूर्ण चाणक्य का मानना है कि हम अपनी युवा अवस्था में ही नहीं बल्कि पूरे जीवन काल में इस नीति को साथ लेकर चले, चाणक्य कहते हैं – हमेशा दूसरों की गलतियों से भी सीखो अपने ही ऊपर प्रयोग करके सीखने को तुम्हारी आयु कम पड़ जाएगी। इसलिए कोशिश करें की ख़ुद की गलतियों को कम करने के लिए औरों की गलतियों से भी सबक लें और उस ग़लती को करने से बचें।।
भारत एक महान देश है यहां मेहनती लोगों की कोई कमी नहीं है, अगर कमी है तो वो है सही मार्गदर्शन की, यही दिशा की, सही लोगों की, सही संगती की, सही समय की, और साथ ही कमी है दृढ़ संकल्प की और निश्चय की…अगर युवाओं को अपने जीवन में बेहतर परिणाम और यादगार अनुभव की लालसा है तो स्वयं को ख़ुद में खोजने का काम करना होगा और इतिहास में रहे गुणी और विद्वानों के दिखाए हुए रास्तों पर चलना होगा, तब ही हम एक सफल इंसान और ज़िम्मेदार नागरिक बन सकते हैं।।

मेरा रंग दे बसंती चोला…

क़रीबन शाम के 7 बज रहे थे, पूरे लाहौर में इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय, और ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ नारे बाज़ी चल रही थी। और इन्हीं नारों के बीच देश के तीन सपूतों को अंग्रेजों ने तय दिन और वक़्त से पहले ही फाँसी पर चढ़ा दिया।

तारीख़ थी 23 मार्च 1931भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षडयंत्र केस में फाँसी पर चढा दिया गया। इन वीरों को फाँसी की सजा देकर अंग्रेज सरकार समझती थी कि भारत की जनता डर जाएगी और स्वतंत्रता की भावना को भूलकर विद्रोह भूल जाएगी। लेकिन असल में ऐसा नहीं हुआ बल्की इस शहादत के बाद भारत की जनता पर स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का रंग इस तरह चढा कि भारत माता के हजारों सपूतों ने सर पर कफन बाँध अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। शहादत की ये ख़बर पूरे शहर में आग सी फैल गयी, हजारो की संख्या में लोग जेल के बाहर इक्कठा होने लगे और इंकलाब जिन्दाबाद के नारे लगाने लगे।

जनता के उग्र प्रर्दशन से बचने के लिए ब्रिटिश पुलिस ने शवों को रातों-रात फिरोजपुर शहर में सतुलज नदी के किनारे ले जाकर जला दिया। जब लाहौर के निवासियों को ये बात पता चली तो अनगिनत लोग देश के वीर शहीदों को श्रद्धांजली देने वहाँ पहुँच गये और लौटते समय इस पवित्र स्थल से स्मृति के रूप में एक-एक मुठ्ठी मिट्टी अपने साथ ले गये। यहाँ  शहीदों की याद में एक विशाल स्मारक का निर्माण किया गया। जहाँ हर साल 23 मार्च को लोग उन्हे श्रद्धांजली अर्पित करते हैं। और इस दिन को शहीद दिवस के तौर पर देखा जाता है। 


इन क्रांतिकारीयों देश को आज़ादी दिलवाने के लिए अपने प्राण हंसते हंसते न्योछावर कर दिए। ये दौर वो था जब एक तरफ़ अहिंसा के मार्ग पर चल कर देश को आज़ादी दिलाने का प्रयास जारी था, तो वहीं दूसरी तरफ़ ईंट का जवाब पत्थर से देने की सोच रखने वाले भगतसिंह ने निडरता और वीरता का परिचय दे रहे थे और आज़ादी पाने के लिए इन वीर सपूतों ने अपने के प्राणों की आहूति दे दी।

इतिहास इस बात का गवाह है की कैसी रही होगी उनकी सोच…असेम्बली हॉल में बम फेंकने के बाद उनके पास पर्याप्त समय था कि वे वहां से भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस हमले से उनका इरादा किसी को मारना नहीं बल्कि अंग्रेजी हुकूमत के कानों तक उसकी गूंज पहुँचाना चाहते थे कि भारत हरगिज गुलाम नहीं रहेगा, भारत आजाद होगा।
राष्ट्रीय कवि “रामधारी सिंह दिनकर” ने अपनी एक कविता में कहा
कलम आज उनकी जय बोल 
जला अस्थियाँ बारी बारी 
छिटकायी जिनमें चिंगारी
जो चढ़ गए पुण्य वेदी पर 
लिये बिना गर्दन का मोल 
कलम आज उनकी जय बोल.
अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के 
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल 
कलम, आज उनकी जय बोल….

आज उनकी पुण्यतिथि पर देश उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा है और आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को याद कर रहा है। लेकिन क्या शहीद दिवस पर उन्हें महज़ याद कर प्रतिमा पर फूलमाला चढ़ाना ही काफी होगा? शायद नहीं क्योंकि वास्तव में अगर हम उनके व्यक्तित्व और विचारों को समझकर उन्हें अपनाने की कोशिश नहीं करते तो शहीद क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि महज एक औपचारिकता ही रह जाएगी।

लेकिन भगतसिंह अपने आप में एक व्यक्तित्व थे और वास्तव में उन्होंने अपनी ही कही एक बात को चरितार्थ किया कि ‘मौत इंसान की होती है, विचारों की नहीं।’ ये उनके विचार ही हैं जिन्होंने उन्हें लोगों के दिलोदिमाग में आज भी जिन्दा रखा हुआ है। उन्होंने अंग्रेजों के बारे में भी कहा था कि ‘वह मेरे सिर को कुचल सकते हैं, विचारों को नहीं। मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, मेरे जज्बे को नहीं’।

भगत सिंह हमेशा से बदलाव के हिमायती रहे। उन्होंने इस बात का जिक्र करते हुए कहा था कि, ‘लोग हालात के अनुसार जीने की आदत डाल लेते हैं। बदलाव के नाम से डरने लगते हैं। ऐसी सोच को क्रांतिकारी विचारों से बदलने की जरूरत है।

भगत सिंह के आजादी के जुनून के कई किस्से सुनने को मिलते हैं। कहते हैं कि जलियावाला बाग में हुए नरसंहार से वह इतने आहत हुए थे कि घर से कई मील दूर घटना स्थल तक पैदल पहुंच गए थे और ख़ून से सनी मिट्टी घर ले आये थे और इस घटना ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया था। लेकिन क्या ऐसा जुनून अब हमारे समाज में देखने को मिलता है इसका जवाब हमें ढूंढना है।

शहीद भगतसिंह के और भी कई किस्से हैं जो  आज भी देश की रगों में हौसला भरने और देश के प्रति निडरता और साहस दिखाने का काम करते हैं।
बताया जाता है की जब भगतसिंह जेल में थे तब एक बार जब भगत सिंह उसी रास्ते से ले जाए जा रहे थे जहाँ तो पंजाब कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर बंद थे उन्होंने आवाज़ ऊँची कर उनसे पूछा था, “आप और आपके साथियों ने लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में अपना बचाव क्यों नहीं किया”

भगत सिंह का जवाब था, “इन्कलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं….

भगतसिंह एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो राष्ट्रवादी था देशभक्त था, भगतसिंह अपने चाचा अजीत सिंह से ख़ासे प्रभावित थे। आज़ादी के परवाने के ऐसे ख़्यालात थे जिसने पूरे आवाम की सोच बदल दी थी, और आज़ादी की इस लड़ाई को नया अंजाम दिया था।

भगतसिंह ब्रिटिश साम्राज्य को ऐसी भाषा में जवाब देना चाहते थे, की अंग्रेजों को क्रांतिकारीयों की ताकत का पता चल सके, 8 अप्रैल को मज़दूरों के खिलाफ असेम्बली में बिल पेश किया जाने वाला था, इसी बिल के विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बहरे अंग्रेजी हुकूमत के कान खोकने के लिए एक एक कर असेम्बली में दो बम फेंके जिसमें आवाज़ महज़ ज़्यादा थी। इस बम कांड से अंग्रेज की रूह कांप गयी। इंकलाब जिंदाबाद के नारों से पूरी असेम्बली गूंजने लगी। सियासी बहरों के सामने इस महाघोष के बाद दोनों ने आत्मसमर्पण कर दिया और ये पूरी ख़बर देश मे फैल गई। सांडर्स की हत्या के बाद और बिल के खिलाफ असेम्बली कांड में भगतसिंह जेल भेज दिए गए।
कहा जाता है भगतसिंह की माँ विद्यावती जी ने भगत के जीवन के लिए रक्षा हेतु अखंड पाठ करवाया और पाठ करने वाले ग्रंथि ने प्रार्थना करते हुए कहा गुरु साहब मां चाहती है बेटा की ज़िन्दगी बच जाए और बेटा देश के लिए कुर्बानी देना चाहता है। जब ये बात भगतसिंह को पता चली तो उन्होंने कहा गुरू साहब भी देश की सुनेंगे ।

भगतसिंह ने जेल में बंद कैदियों की स्थिति को सुधारने के लिए भी कई आंदोलन किये और 2 महीनों से अधिक भूख हड़ताल की और अंग्रेजों को उनके आगे झुकना पड़ा।
भगतसिंह देश के लिए कुर्बान होने के लिए तैयार थे, उन्हें यांकी था कि उनकी कुर्बानी और कई भगतसिंह खड़े करेगी और आने वाली पीढ़ी को इस  कुर्बानी से प्रेरणा मिलेगी।

भगत सिंह को फाँसी होने कुछ वक्त पहले उनके वकील मेहता साहब ने उनसे पूंछा कैसा महसूस कर रहे हैं और क्या आपको किसी चीज़ की इच्छा है, भगतसिंह ने अपने ही अंदाज में जवाब दिया, उन्होंने कहा हमेशा की तरह आज भी खुश हूं और फिर से इसी देश में जन्म लेना चाहूँगा और फिर से देश की सेवा करना चाहूंगा। और यही कह कर इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद कह कर चले गए।

दुनिया से क्यों खफ़ा रहें,
आसमान से क्यों गिला करें,
सारा ज़माना दुश्मन सही,
आओ मुकाबला करें…
भगत सिंह के ये बोल उन्हें अमर कर गए, भगत सिंह एक सोच थी, एक संघर्ष था, एक उम्मीद थी, ऐसे परमवीर को हमारा शत शत नमन।।

कहानी कुबड़ी अम्मा की…

जेठ की दोपहर में न घर के भीतर चैन आता है और न बाहर ही, दस-सवा दस बजते ही सूरज का तापमान बढ़ता ही जाता है और चलने लगती है सनन सनन लू लपट तेज़ी से यानी दोपहर तभी से मान लीजिए। लेकिन फिर भी गाँव में घर के आगे लगे बरगद का पेड़ इस दौरान किसी वरदान से कम नहीं लगता, चारों तरफ इतनी छाया की लोग चाहे जैसे बैठे रहें…जी ये वही पेड़ है जिसे मैं, मेरे पापा, उनके पिताजी और उनके बाबा ने ऐसे ही देखा है कई दशकों से…..आप सोच रहे होंगे यहां इन सब में कुबड़ी अम्मा का ज़िक्र अब तक तो कहीं हुआ ही नहीं दरसअल वो चली आ रहीं है धीरे धीरे सड़क की दाहिनी तरफ से, कमर झुकी हुई, रंग बिल्कुल काला पड़ा हुआ, हाँथ में सहारे के लिए एक घुटाना जैसी लकड़ी लिए हुए, पाँव में अलग अलग प्रकार की दो चपलें – क्योंकि ग़रीबी बुरी होती है और उस सिकुड़ते हुए शरीर पर सिल्क की गुलाबी साड़ी, साथ ही सर पर से कभी न हटने वाला वो मर्यादा का पल्लू जिसे अम्मा ने क़रीब 60 सालों से ओढ़ा हुआ है….कुबड़ी अम्मा की उम्र तकरीबन 82 साल की है और वो रोज़ गाँव के शुरुआती छोर के पीछे के खेतों में लगे आम के पेड़ों की रखनवारी करने वाले उम्रदराज बूढ़े व्यक्ति को खाना देने जाती हैं यह बुजुर्ग उनके पति है। गाँव में एक जाति होती है सौंर की जो आमतौर पर दूसरों की खेत की रखवाली, मजूरी या फिर बटिया पर खेती करते हैं। कुबड़ी अम्मा के पति 92 साल के हैं और बिल्कुल स्वस्थ हैं, उन्होंने अपनी ज़िंदगी के क़रीब 50 साल आम के पेड़ों की रखवाली करने में निकाल दी है, कहते हैं जब इन पेड़ों में फल आने से पहले कली आती है तभी से इनकी रखवाली में सख़्ती दिखानी पड़ती है, पहले लंगूरों से फिर उन बच्चों से भी जो पूरे बसन्त उस आम को निहारते रहते हैं और करते रहते हैं इंतज़ार उसमें फल आने का….और रहते हैं तैयार पहली कैरी को तोड़ने के लिए….नए आए हुए आमों में पत्थर सनाने के लिए और फिर आती है बहार खिल उठते हैं नए पत्ते जिन्हें महज़ देखकर ही मन हो पड़ता है प्रफुल्लित और रहती है प्रतीक्षा बच्चों को, जानवरों को, पक्षियों को बड़ों को हर किसी को, आम आने से कुछ वक़्त पहले तक कोयलें ख़ूब देतीं हैं साथ उस बूढ़े और मौन आम का और कुबड़ी अम्मा के पति का भी…. बब्बा बताते हैं कि उनकी एक आँख पूरी तरह खुलती नहीं है और न ही उससे ज्यादा दिखाई देता है जवानी में लगी एक छोटी सी लकड़ी लगने की वज़ह से मगर काम उन्हें सिर्फ़ यही पसदं है वो बताते हैं कि उन्हें जो तमाम लोग गांजा पीने से रोकते थे वो सब मर गए हैं पर मैं वही का वही हूँ दुस्त तंदुरुस्त…..इस उम्र में आते आते व्यक्ति अमूमन घरों पर ही रहता है और आराम फरमाता है लेकिन कुबड़ी अम्मा बताती हैं कि इन्हें बिल्कुल आलास नहीं है, 92 की उम्र में 22 साल के जवान लड़के की तरह लंगूरों को और बच्चों को भगाने दौड़ते फिरते हैं। इस उम्र में भी गुलेल और गुथना चला कर लंगूरों को भागना कोई आसान बात नहीं है।

अक्सर मैं भूतिया कुएँ के पास लगे नल पर नहाने चला जाता हूँ जिसका रास्ता इसी आम के नीचे से गुज़रता है, कुबड़ी अम्मा कभी कभार अपने परपोते को साथ लेकर आतीं हैं और वहां से निकते ही सबसे राम राम करने को कहतीं हैं और वो शर्मा कर उनके पीछे छिप जाता है। तभी अम्मा कहती हैं भैया राम राम करो मरहाज हरें आएँ, और मैं उसे एक नज़र देख निकल जाता हूँ। कुबड़ी अम्मा के 10 बेटे और 4 बेटियां भी, सबकी सादी ब्याह हो गए हैं, पर अम्मा अपनी पोते-पोतियों के ब्याह के लिए अभी भी कुछ न कुछ जोड़ती ही जा रही हैं….कहती हैं चौथे बेटे की तीसरी बिटिया के लिए चंदेरी साड़ी लेनी है अगन में उसकी शादी है। कुछ ऐसी ही है कुबड़ी अम्मा और उनके पति की कहानी मैं रोज़ बरगद के नीचे ठीक सवा दस बजे बैठ जाता हूँ और जाते वक्त भी थोड़ा उनसे बतिया लेता हूँ और शाम छह बजे वापसी में भी उन्हें वहां से निकलते हुए देखता हूँ बड़ा अच्छा सा लगता है बिल्कुल नहीं लगता जैसे वो अपनी झुकी कमर से परेशन हैं या हैरान हैं उन्होंने उसे स्वीकारा है उम्र के इस पड़ाव पर ये कर पाना भी बहुत बड़ी बात है। मैंने उनसे यही सीखा है। उन्होंने वो सब किरदार निभाए हैं जो एक और निभाती है। इसके अलावा उन्होंने अपनी सभी ज़िमेदारियाँ निभाई हैं ताकि कोई उन्हें कुछ कह न पाए…. कुबड़ी अम्मा आप ग्रेट हैं।।

                           

एक शाम