सियासत….
सियासत रंगीन तो है
मगर फूट डाल देती है
रिश्तों में टूट डाल देती है
सियासत चीज़ ही ऐसी है सब में फूट डाल देती हैं….
सत्ता का सुरूर है
पर संबंधों में कम नूर है
सफ़ेद चादर सी तो है
लेकिन काफ़ी मैली है
सच तो ये है की सियासत टूट डाल देती है
रिश्तों में फूट डाल देती है।
लोग इसे कीचड़ तो कहते है
मगर कमाल भी इसी में ढूंढते है
थोड़ी नहीं बहुत गन्दी है
सियासत सच में नंगी है
और सच है इसमें फूट ही फूट होती है।
सच तो ये है की सियासत टूट डाल देती है
रिश्तों में फूट डाल देती है।
सगे संबंध पीछे टूट जाते है
सियासत में अच्छे अच्छे पीछे छूट जाते है
ये हर बार का मेला है, लगती यहां बोली है
किसी को लाखों संग है तो कोई बिलकुल अकेला,
सबका अपना अंदाज़ हैं, कोई झूठा तो किसी का झूठ का पुलिन्दा है
कोई जाति पर, कोई धर्म पर मांगता है
या कोई वोट के लिए आरक्षण का राग अलापता है
कोई वादों और नारों में उलझता है
कोई हमारे दर्द को हमारी ताक़त बताता है
सच तो ये है की सियासत टूट डाल देती है
रिश्तों में फूट डाल देती है।
खून पानी सा बहता है
पैसा हवा में उड़ता है
लोग भी योजनाओं की नाव पर सवार रहते हैं
झूठ ही सही पर झूठ को सबसे बड़ा बताते है
ये विकास के नाम पे सिर्फ भाषण सुनाते है
काम चुनाव में जीत के बाद भूल सा जाते हैं
आख़िर कब ये सुधरेगा
बेटा बाप से बाप बेटे से कब तक उलझेगा
रिश्तों की डोर आख़िर कब तक टूटेगी कब कुछ बेहतर होगा
कब हम चुनाव और वोट की क़ीमत समझेगें
लेकिन कुछ भी हो ,
सच तो यही है की सियासत टूट दाल देती है
रिश्तों में फूट डाल देती है।
रिश्तों में फूट डाल देती है।
उदित….
चित्र सौजन्य: गूगल बाबा