किस्सा बनारसी इश्क़ का….

किस्सा बनारसी इश्क़ का….

आओ तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूँ,
कब मिली थी वो ये दिन बताता हूँ,

धीरे धीरे ही सही चलो पर्दा हटाएं,
कितना सताया उसने मुझे आओ ये बताएँ,

एक ऐसी बीमारी है कम्बख़त इश्क़, जिसका कोई मर्ज तक नहीं, हर हक़ीम ने इए लाइलाज बताया था,

पलकें तक नहीं झपकाते थे जब वो सामने होती थी, सुबह से शाम और शाम से रात होती थी,

मेरे छजे से उसका छजा मिलता था,
इसी बहाने हमारा दिल और पिघलता था,
है हक़ीक़त उसके इंतज़ार में हम ख़ूब तड़पते थे, उसके दीखते ही, हम कुछ भी ना कहते थे,

इश्क़ क्या होता है इस इश्क़ ने समझाया था,
उनने और हमने इस रिश्ते को ख़ूब निभाया था, भले ज़ुबाँ से एक लफ्ज़ ना बोले कभी, पर दिल से दिल को ख़ूब मिलाया था…

कई दफ़ा हम साथ घूमने ना जाने कहाँ कहाँ गये, पर ये मोहब्बत इतनी पाक थी,
कि हमनें कभी एक दूसरे को छुआ तक नहीं,

यूँ ही 8 साल क़रीबन बीत गए,
दिल धड़कते रहे, वक़्त चलता रहा,
हम नज़रों से, बातों से,
वादों से, मुलाकातों से,
और क़रीब आते गये…

इस तरह इस किस्से की ख़बर अब अखबारों में आने लगी थी, छुटकी अम्मा से और अम्मा बापू को सब कुछ बताने लगी थीं,
ये हाल दोनों तरफी का था,
आग दिलों में धधक ने लगी थी,

ये उस दौर की मोहब्बत थी जब खत चला करते थे, एक एक ज़वाब आने में कई दिन लगा करते थे…

मानो सब कुछ ठहर सा जाता था,
एक झलक से दिन सँवर सा जाता था,
वो किसी ना किसी बहाने से घर से निकल ही आती थी और मैं भी चौराहे पर वक़्त रहते पहुँच ही जाता था,

ना जाने क्यों कब और कैसे हुआ,
बंदिशों का अचानक से दौर शुरू हुआ,
फ़तवे निकलने लगे रोज़ हमारे ख़िलाफ़,
उनसे होने वाली मुलाकातों पर,

मोहले में ये ख़बर अब आग सी फैल रही थी,
मानो सबकी ज़ुबाँ पर एक ही बात बोल रही थी,
फिर भी रोक कर भी ख़ुद को कई बार रोका उसे,
लाख कोशिशें करीं पर कभी कुछ कहा ना सका उसे,

एक शाम अचानक से ना जाने किसी काम से शहर जाना पड़ा, लौटकर देखा तो मोहब्बत का आशियाना जल चुका था, मेरे इस किस्से को जला कर लोग हँस रहे थे, मुझे यकीं ना था तुम यूँ छोड़कर चली जाओगी,
पर हाँ भरोसा है लौट कर वापस एक दिन ज़रूर आओगी……

उदित…