कहानी कुबड़ी अम्मा की…

जेठ की दोपहर में न घर के भीतर चैन आता है और न बाहर ही, दस-सवा दस बजते ही सूरज का तापमान बढ़ता ही जाता है और चलने लगती है सनन सनन लू लपट तेज़ी से यानी दोपहर तभी से मान लीजिए। लेकिन फिर भी गाँव में घर के आगे लगे बरगद का पेड़ इस दौरान किसी वरदान से कम नहीं लगता, चारों तरफ इतनी छाया की लोग चाहे जैसे बैठे रहें…जी ये वही पेड़ है जिसे मैं, मेरे पापा, उनके पिताजी और उनके बाबा ने ऐसे ही देखा है कई दशकों से…..आप सोच रहे होंगे यहां इन सब में कुबड़ी अम्मा का ज़िक्र अब तक तो कहीं हुआ ही नहीं दरसअल वो चली आ रहीं है धीरे धीरे सड़क की दाहिनी तरफ से, कमर झुकी हुई, रंग बिल्कुल काला पड़ा हुआ, हाँथ में सहारे के लिए एक घुटाना जैसी लकड़ी लिए हुए, पाँव में अलग अलग प्रकार की दो चपलें – क्योंकि ग़रीबी बुरी होती है और उस सिकुड़ते हुए शरीर पर सिल्क की गुलाबी साड़ी, साथ ही सर पर से कभी न हटने वाला वो मर्यादा का पल्लू जिसे अम्मा ने क़रीब 60 सालों से ओढ़ा हुआ है….कुबड़ी अम्मा की उम्र तकरीबन 82 साल की है और वो रोज़ गाँव के शुरुआती छोर के पीछे के खेतों में लगे आम के पेड़ों की रखनवारी करने वाले उम्रदराज बूढ़े व्यक्ति को खाना देने जाती हैं यह बुजुर्ग उनके पति है। गाँव में एक जाति होती है सौंर की जो आमतौर पर दूसरों की खेत की रखवाली, मजूरी या फिर बटिया पर खेती करते हैं। कुबड़ी अम्मा के पति 92 साल के हैं और बिल्कुल स्वस्थ हैं, उन्होंने अपनी ज़िंदगी के क़रीब 50 साल आम के पेड़ों की रखवाली करने में निकाल दी है, कहते हैं जब इन पेड़ों में फल आने से पहले कली आती है तभी से इनकी रखवाली में सख़्ती दिखानी पड़ती है, पहले लंगूरों से फिर उन बच्चों से भी जो पूरे बसन्त उस आम को निहारते रहते हैं और करते रहते हैं इंतज़ार उसमें फल आने का….और रहते हैं तैयार पहली कैरी को तोड़ने के लिए….नए आए हुए आमों में पत्थर सनाने के लिए और फिर आती है बहार खिल उठते हैं नए पत्ते जिन्हें महज़ देखकर ही मन हो पड़ता है प्रफुल्लित और रहती है प्रतीक्षा बच्चों को, जानवरों को, पक्षियों को बड़ों को हर किसी को, आम आने से कुछ वक़्त पहले तक कोयलें ख़ूब देतीं हैं साथ उस बूढ़े और मौन आम का और कुबड़ी अम्मा के पति का भी…. बब्बा बताते हैं कि उनकी एक आँख पूरी तरह खुलती नहीं है और न ही उससे ज्यादा दिखाई देता है जवानी में लगी एक छोटी सी लकड़ी लगने की वज़ह से मगर काम उन्हें सिर्फ़ यही पसदं है वो बताते हैं कि उन्हें जो तमाम लोग गांजा पीने से रोकते थे वो सब मर गए हैं पर मैं वही का वही हूँ दुस्त तंदुरुस्त…..इस उम्र में आते आते व्यक्ति अमूमन घरों पर ही रहता है और आराम फरमाता है लेकिन कुबड़ी अम्मा बताती हैं कि इन्हें बिल्कुल आलास नहीं है, 92 की उम्र में 22 साल के जवान लड़के की तरह लंगूरों को और बच्चों को भगाने दौड़ते फिरते हैं। इस उम्र में भी गुलेल और गुथना चला कर लंगूरों को भागना कोई आसान बात नहीं है।

अक्सर मैं भूतिया कुएँ के पास लगे नल पर नहाने चला जाता हूँ जिसका रास्ता इसी आम के नीचे से गुज़रता है, कुबड़ी अम्मा कभी कभार अपने परपोते को साथ लेकर आतीं हैं और वहां से निकते ही सबसे राम राम करने को कहतीं हैं और वो शर्मा कर उनके पीछे छिप जाता है। तभी अम्मा कहती हैं भैया राम राम करो मरहाज हरें आएँ, और मैं उसे एक नज़र देख निकल जाता हूँ। कुबड़ी अम्मा के 10 बेटे और 4 बेटियां भी, सबकी सादी ब्याह हो गए हैं, पर अम्मा अपनी पोते-पोतियों के ब्याह के लिए अभी भी कुछ न कुछ जोड़ती ही जा रही हैं….कहती हैं चौथे बेटे की तीसरी बिटिया के लिए चंदेरी साड़ी लेनी है अगन में उसकी शादी है। कुछ ऐसी ही है कुबड़ी अम्मा और उनके पति की कहानी मैं रोज़ बरगद के नीचे ठीक सवा दस बजे बैठ जाता हूँ और जाते वक्त भी थोड़ा उनसे बतिया लेता हूँ और शाम छह बजे वापसी में भी उन्हें वहां से निकलते हुए देखता हूँ बड़ा अच्छा सा लगता है बिल्कुल नहीं लगता जैसे वो अपनी झुकी कमर से परेशन हैं या हैरान हैं उन्होंने उसे स्वीकारा है उम्र के इस पड़ाव पर ये कर पाना भी बहुत बड़ी बात है। मैंने उनसे यही सीखा है। उन्होंने वो सब किरदार निभाए हैं जो एक और निभाती है। इसके अलावा उन्होंने अपनी सभी ज़िमेदारियाँ निभाई हैं ताकि कोई उन्हें कुछ कह न पाए…. कुबड़ी अम्मा आप ग्रेट हैं।।

                           

एक शाम