विलुप्त होने की कगार पर देश की 40 से ज़्यादा बोलियां…

भाषा एक ऐसा साधन जिसके माध्यम से मनुष्य अपने विचारों और भावनाओं का आदान प्रदान करता है। अपनी बात को कहने के लिए और दूसरे की समझने के लिए भाषा एक सशक्त साधन है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक हर व्यक्ति किसी क्षेत्र की कोई ना कोई बोली और भाषा बोलता ही है।
प्रत्येक राष्ट्र की अपनी अलग-अलग भाषाएं होती हैं। लेकिन उनका राज-कार्य जिस भाषा में होता है और जो जन सम्पर्क की भाषा होती है उसे ही राष्ट्र-भाषा का दर्जा प्राप्त होता है ।

भारत में भी अनेक राज्य हैं । उन राज्यों की अपनी अलग-अलग भाषाएं हैं । इस प्रकार भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है लेकिन उसकी अपनी एक राष्ट्रभाषा है- हिन्दी।

कहा जाता है भारत में कोस कोस पर पानी बदल जाता है और चार कोस पर बोलियां, लेकिन आज इन बोलियों और भाषाओं पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, माना जा रहा है कि इनका अस्तित्व अब ख़त्म होने की कगार पर है।

पिछले 50 सालों में भारत की क़रीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। 50 साल पहले 1961 की जनगणना के बाद 1652 मातृभाषाओं का पता चला था। लेकिन उसके बाद इन भाषाओं और बोलियों का कुछ अता पता नहीं है।

गैर सरकारी संगठन भाषा ट्रस्ट के संस्थापक और लेखक गणेश डेवी ने गहन शोध के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा है कि शहरीकरण और प्रवास की दौड़भाग में करीब 230 भाषाओं का नामो निशान मिट गया है। विश्वभर में भारत की पहचान उसकी संस्कृति और भाषाओं से ही इसलिए भारत ना सिर्फ इन भाषाओं को ही नहीं खो रहा है, बल्कि इनके साथ जुड़ी अपनी पहचान से भी दूर होता जा रहा है।

गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि 42 भाषाएं ऐसी है जिन्हें बोलने वाले 10,000 से भी कम लोग रह गए हैं, इन्हें लगभग लुप्तप्राय माना जा रहा है और ये खत्म होने की ओर हैं।

जिन भाषाओं या बोलियों को लुप्तप्राय माना जा रहा है उसमें मुख्य हैं अंडमान निकोबार द्वीप समूह से 11 (ग्रेट अंडमानीज, जारवा, लामोंगसे, लूरो, मोउट, ओंगे, पू, सानयेनो, सेंटिलेज, शोमपेन और तटकाहनयिलांग), मणिपुर से सात (एमोल, अका, कोइरन, लमगांग, लांगरोंग, पुरूम और तराओ) और हिमाचल प्रदेश से चार (बगहाटी, हन्दूरी, पंगवाली और सिरमौदी) शामिल है.

लुप्त हो चुकी श्रेणी में अन्य भाषाओं में मंदा, परजी और पेन्गो (ओडिशा), कोरगा और कुरुबा (कर्नाटक), गादाबा और नाकी (आंध्र प्रदेश), कोटा और थोडा (तमिलनाडु), मो और ना (अरुणाचल प्रदेश), ताई नोरा और ताई रोंग (असम), बंगानी (उत्तराखंड), बीरहर (झारखंड), निहाली (महाराष्ट्र), रुगा (मेघालय) और टोटो (पश्चिम बंगाल) शामिल हैं.

भाषाओं या बोलियों के संरक्षण के लिए मैसूर स्थित केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान इन्हें बचाने के पूरे प्रयास कर रही है।
इन भाषाओं व बोलियों को भविष्य के लिए सहेज कर रखने का काम ज़ोरो से है, इस योजना के तहत व्याकरण संबंधी विस्तृत जानकारी जुटाना, मोनोलिंगुअल और द्विभाषिक शब्दकोष तैयार करने के काम किए जा रहे हैं।
साथ ही, भाषा के मूल नियम, उन भाषाओं की लोककथाओं का संग्रह, इन सभी भाषाओं या बोलियों के विश्वकोष भी तैयार किए जा रहे हैं। विशेष रूप से 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की सूची तैयार की जा रही है।

इन भाषाओं या बोलियों के लुप्त होने के सबसे बड़े दो कारण हैं, शहरीकरण के विस्तार के साथ पलायन के कारणआदिवासी समुदाय भी अपनी प्राचीन भाषाएं छोड़ते जा रहे हैं। रोज़गार की तलाश में गाँव से पलायन कर लोग शहरों की तरफ़ आते गए और धीरे धीरे उनकी बोलियों या भाषाओं को शहरों ने अपने भीतर समेट लिया।
दूसरा कारण आज की युवा पीढ़ी है, जो पश्चात संस्कृति की ओर तेज़ी से बढ़ती जा रही है और अपनी बोलियों या भाषाओं को भूलाती जा रही है। बरहाल भाषा, बोली और हमारी संस्कृति देश की धरोहर है जिसे बचाना हमारा प्रथम कर्तव्य होना चाहिए।

भाषा या बोली को नुकसान सांस्कृतिक नुकसान है ही, साथ ही आर्थिक नुकसान भी है। भाषा आर्थिक पूंजी होती है क्योंकि आज की सभी तकनीक भाषा पर आधारित तकनीक हैं।
भाषा को बचाने का मतलब भाषा बोलने वाले समुदाय को बचाना है। ऐसे समुदायों के लिए जो नए विकास के और नए विचारों से पीड़ित हैं।

विनय रावत

उदित…